Saturday, March 24, 2007

Al Fatiha

क़ुरआने अज़ीम का ख़ुलासा
Al - Fatiha :
पहली सूरत सूरए फ़ातिहा कहलाती है जिसे अवाम अलहम्दु शरीफ़ भी कहते है. सूरए फ़ातिहा नमाज़ की हर रक़अत में पढ़ी जाती है दर अस्ल यह एक दुआ है जो अल्लाह तआला ने हर उस इन्सान को सिखाई है जो इस मुकद्दस किताब का मुतालिआ शुरु कर रहा है. इस में सबसे पहले अल्लाह की अहम सिफ़ात ख़ुसूसन तमाम जहानों के रब होने, सबसे ज़ियादा रहमान और रहीम होने और साथ साथ इन्साफ़ करने वाले की हैसियत से तारीफ़ की गई है. और उसके एहसानों और नेमतों का शुक्र भी अदा किया गया है. फिर अपनी बन्दगी और आजिज़ी का ऐतिराफ़ करते हुए उससे ज़िन्दगी के मामलात में सीधे रास्ते की हिदायत तलब की गई है. जो हमेशा से उसके इनामयाफ्त़ा और मक़बूल बन्दों को हासिल रही है और जिससे सिर्फ़ वही लोग मेहरुम होते है जिन्होंने उसके रास्ते को छोड़ दिया है. या उसकी कोई परवाह ही नहीं की है.

Wednesday, March 21, 2007

AL - Fatiha (Quran in Hindi)

अल्लाह के नाम से शुरु जो बड़ा मेहरबान रहमत वाला
कलामुर - रहमान
हिन्दी में कुरआने मजीद
कन्जुल ईमान
अरबी मत्न, अनुवाद तफसीर
उर्दू अनुवाद : अअला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खॉं
(मुहद्दिसे बरैलवी रहमतुल्लाहे तआला अलैह)
हिन्दी रुपान्तर : सैयद शाह आले रसूल हसनैन मियाँ नज़्मी
(सज्जादानशीन, खा़नका़हे बरकातियह, मारेहराशरीफ.)




सूरतुल फ़ातिहा Al- Fatiha

बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
सूरतुल फ़ातिहा
मक्का में उतरी : आयतें सात, रुकु एक, अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
1. सब खू़बियाँ अल्लाह को जो मालिक सारे जहान वालों का
2. बहुत मेहरबान रहमतवाला
3. रोज़े जज़ा (इन्साफ के दिन) का मालिक
4. हम तुझी को पूजें और तुझी से मदद चाहें
5. हम को सीधा रास्ता चला
6. रास्ता उनका जिन पर तूने एहसान किया
7. उनका जिनपर ग़ज़ब (प्रकोप) हुआ और बहके हुओं का


तफसीर - सुरतुल फातिहा
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला, अल्लाह की तअरीफ़ और उसके हबीब पर दरुद.

सूरए फातिहा के नाम :
इस सूरत के कई नाम हैं - फा़तिहा, फा़तिहतुल किताब, उम्मुल कु़रआन, सूरतुल कन्ज़, काफि़या, वाफ़िया, शाफ़िया, शिफ़ा, सबए मसानी, नूर, रुकै़या, सूरतुल हम्द, सूरतुल दुआ़ तअलीमुल मसअला, सूरतुल मनाजात सूरतुल तफ़वीद, सूरतुल सवाल, उम्मुल किताब, फा़तिहतुल क़ुरआन, सूरतुस सलात.
इस सूरत में सात आयतें, सत्ताईस कलिमें, एक सौ चालीस अक्षर हैं. कोई आयत नासिख़ या मन्सूख़ नहीं.


शानें नज़ूल यानी किन हालात में उतरी :
ये सूरत मक्कए मुकर्रमा या मदीनए मुनव्वरा या दोनों जगह उतरी. अम्र बिन शर्जील का कहना है कि नबीये करीम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम - उन पर अल्लाह तआला के दुरुद और सलाम हों) ने हज़रत ख़दीजा(रदियल्लाहो तआला अन्हा - उनसे अल्लाह राज़ी) से फ़रमाया - मैं एक पुकार सुना करता हूँ जिसमें इक़रा यानी 'पढ़ों' कहा जाता है. वरक़ा बिन नोफि़ल को खबर दी गई, उन्होंने अर्ज़ किया - जब यह पुकार आए, आप इत्मीनान से सुनें. इसके बाद हज़रत जिब्रील ने खि़दमत में हाजि़र होकर अर्ज़ किया-फरमाइये: बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम. अल्हम्दु लिल्लाहे रब्बिल आलमीन- यानी अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान, रहमत वाला, सब खूबियाँ अल्लाह को जो मालिक सारे जहान वालों का. इससे मालूम होता है कि उतरने के हिसाब से ये पहली सूरत है मगर दूसरी रिवायत से मालूम होता है कि पहले सूरए इक़रा उतरी. इस सूरत में सिखाने के तौर पर बन्दों की ज़बान में कलाम किया गया है.
नमाज़ में इस सूरत का पढ़ना वाजिब यानी ज़रुरी है. इमाम और अकेले नमाज़ी के लिये तो हक़ीक़त में अपनी ज़बान से, और मुक्तदी के लिये इमाम की ज़बान से. सही हदीस में है इमाम का पढ़ना ही उसके पीछे नमाज़ पढ़ने वाले का पढ़ना है. कुरआन शरीफ़ में इमाम के पीछे पढ़ने वाले को ख़ामोश रहने और इमाम जो पढ़े उसे सुनेने का हुक्म दिया गया है. अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जब क़ुरआन पढ़ा जाए तो उसे सुनो और खा़मोश रहो. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है कि जब इमाम क़ुरआन पढ़े, तुम ख़ामोश रहो. और बहुत सी हदीसों में भी इसी तरह की बात कही गई है. जनाजे़ की नमाज़ में दुआ याद न हो तो दुआ की नियत से सूरए फ़ातिहा पढ़ने की इजाज़त है. क़ुरआन पढ़ने की नियत से यह सूरत नहीं पढ़ी जा सकती.

सूरतुल फ़ातिहा की खूबियाँ:
हदीस की किताबों में इस सूरत की बहुत सी ख़ूबियाँ बयान की गई है.
हुजू़र सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फरमाया तौरात व इंजील व जु़बूर में इस जैसी सूरत नहीं उतरी.(तिरमिज़ी).
एक फ़रिश्ते ने आसमान से उतरकर हुजू़र सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर सलाम अर्ज़ किया और दो ऐसे नूरों की ख़ूशख़बरी सुनाई जो हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से पहले किसी नबी को नहीं दिये गए.
एक सूरए फ़ातिहा दूसरे सुरए बक्र की आख़िरी आयतें.(मुस्लिम शरीफ़)
सूरए फा़तिहा हर बीमारी के लिए दवा है. (दारमी).
सूरए फ़ातिहा सौ बार पढ़ने के बाद जो दुआ मांगी जाए, अल्लाह तआला उसे क़ुबूल फ़रमाता है. (दारमी)
इस्तिआजा: क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने से पहले "अऊज़ो बिल्लाहे मिनश शैतानिर रजीम" (अल्लाह की पनाह मांगता हूँ भगाए हुए शैतान से) पढ़ना प्यारे नबी का तरीक़ा यानी सुन्नत है. (ख़ाज़िन) लेकिन शागिर्द अगर उस्ताद से पढ़ता हो तो उसके लिए सुन्नत नहीं है. (शामी) नमाज़ में इमाम और अकेले नमाज़ी के लिये सना यानी सुब्हानकल्लाहुम्मा पढ़ने के बाद आहिस्ता से "अऊज़ो बिल्लाहे मिनश शैतानिर रजीम" पढ़ना सुन्नत हैं.
तस्मियह: बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम क़ुरआने पाक की आयत है मगर सूरए फ़ातिहा या किसी और सूरत का हिस्सा नहीं है, इसीलिये नमाज़ में ज़ोर के साथ् न पढ़ी जाए. बुखारी और मुस्लिम शरीफ़ में लिखा है कि प्यारे नबी हुजू़र सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और हज़रत सिद्दीक़ और फ़ारूक़ (अल्लाह उनसे राज़ी) अपनी नमाज़ "अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन "यानी सूरए फ़ातिहा की पहली आयत से शुरू करते थे. तरावीह (रमज़ान में रात की ख़ास नमाज़) में जो ख़त्म किया जाता है उसमें कहीं एक बार पूरी बिस्मिल्लाह ज़ोर से ज़रूर पढ़ी जाए ताकि एक आयत बाक़ी न रह जाए.
क़ुरआन शरीफ़ की हर सूरत बिस्मिल्लाह से शुरू की जाए, सिवाय सूरए बराअत या सूरए तौबह के. सूरए नम्ल में सज्दे की आयत के बाद जो बिस्मिल्लाह आई है वह मुस्तक़िल आयत नहीं है बल्कि आयत का टुकड़ा है. इस आयत के साथ ज़रूर पढ़ी जाएगी, आवाज़ से पढ़ी जाने वाली नमाज़ों में आवाज़ के साथ और खा़मोशी से पढ़ी जाने वाली नमाज़ों में ख़ामोशी से. हर अच्छे काम की शुरूआत बिस्मिल्लाह पढ़कर करना अच्छी बात है. बुरे काम पर बिस्मिल्लाह पढ़ना मना है.
सूरए फ़ातिहा में क्या क्या है?
इस सूरत में अल्लाह तआला की तारीफ़, उसकी बड़ाई, उसकी रहमत, उसका मालिक होना, उससे इबादत, अच्छाई, हिदायत, हर तरह की मदद तलब करना, दुआ मांगने का तरीक़ा, अच्छे लोगों की तरह रहने और बुरे लोगों से दूर रहने, दुनिया की ज़िन्दगी का ख़ातिमा, अच्छाई और बुराई के हिसाब के दिन का साफ़ साफ़ बयान है.
हम्द यानि अल्लाह की बड़ाई बयान करना....
हर काम की शुरूआत में बिस्मिल्लाह की तरह अल्लाह की बड़ाई का बयान भी ज़रूरी है. कभी अल्लाह की तारीफ़ और उसकी बड़ाई का बयान अनिवार्य या वाजिब होता है जैसे जुमुए के ख़त्बे में, कभी मुस्तहब यानी अच्छा होता है जैसे निकाह के ख़ुत्बे में या दुआ में या किसी अहम काम में और हर खाने पीने के बाद. कभी सुन्नते मुअक्कदा (यानि नबी का वह तरीक़ा जिसे अपनाने की ताकीद आई हो)जैसे छींक आने के बाद. (तहतावी)
"रब्बिल आलमीन" (यानि मालकि सारे जहां वालों का)में इस बात की तरफ इशारा है कि सारी कायनात या समस्त सृष्टि अल्लाह की बनाई हुई है और इसमें जो कुछ है वह सब अल्लाह ही की मोहताज है. और अल्लाह तआला हमेशा से है और हमेशा के लिये है, ज़िन्दगी और मौत के जो पैमाने हमने बना रखे हैं, अल्लाह उन सबसे पाक है, वह क़ुदरत वाला है."रब्बिल आलमीन" के दो शब्दों में अल्लाह से तअल्लुक़ रखने वाली हमारी जानकारी की सारी मन्ज़िलें तय हो गई.
"मालिके यौमिद्दीन" (यानि इन्साफ वाले दिन का मालिक) में यह बता दिया गया कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं है क्योंकि सब उसकी मिल्क में है और जो ममलूक यानी मिल्क में होता है उसे पूजा नहीं जा सकता. इसी से मालूम हुआ कि दुनिया कर्म की धरती है और इसके लिये एक आख़िर यानी अन्त है. दुनिया के खत्म होने के बाद एक दिन जज़ा यानी बदले या हिसाब का है. इससे पुनर्जन्म का सिद्धान्त या नज़रिया ग़लत साबित हो गया.
"इय्याका नअबुदु" (यानि हम तुझी को पूजें) अल्लाह की ज़ात और उसकी खूबियों के बयान के बाद यह फ़रमाना इशारा करता है कि आदमी का अक़ीदा उसके कर्म से उपर है और इबादत या पूजा पाठ का क़ुबूल किया जाना अक़ीदे की अच्छाई पर है. इस आयत में मूर्ति पूजा यानि शिर्क का भी रद है कि अल्लाह तआला के सिवा इबादत किसी के लिये नहीं हो सकती.
"वइय्याका नस्तईन" (यानि और तुझी से मदद चाहें)में यह सिखाया गया कि मदद चाहना, चाहे किसी माध्यम या वास्ते से हो, या फिर सीधे सीधे या डायरैक्ट, हर तरह अल्लाह तआला के साथ ख़ास है. सच्चा मदद करने वाला वही है. बाक़ि मदद के जो ज़रिये या माध्यम है वा सब अल्लाह ही की मदद के प्रतीक या निशान है. बन्दे को चाहिये कि अपने पैदा करने वाले पर नज़र रखे और हर चीज़ में उसी के दस्ते क़ुदरत को काम करता हुआ माने. इससे यह समझना कि अल्लाह के नबियों और वलियों से मदद चाहना शिर्क है, ऐसा समझना ग़लत है क्योंकि जो लोग अल्लाह के क़रीबी और ख़ास बन्दे है उनकी इमदाद दर अस्ल अल्लाह ही की मदद है. अगर इस आयत के वो मानी होते जो वहाबियों ने समझे तो क़ुरआन शरीफ़ में "अईनूनी बि क़ुव्वतिन" और "इस्तईनू बिस सब्रे वसल्लाह" क्यों आता, और हदीसों में अल्लाह वालों से मदद चाहने की तालीम क्यों दी जाती.
"इहदिनस सिरातल मुस्तक़ीम"(यानी हमको सीधा रास्ता चला) इसमें अल्लाह की ज़ात और उसकी ख़ूबियों की पहचान के बाद उसकी इबादत, उसके बाद दुआ की तालीम दी गई है. इससे यह मालूम हुआ कि बन्दे को इबादत के बाद दुआ में लगा रहना चाहिये. हदीस शरीफ़ में भी नमाज़ के बाद दुआ की तालीम दी गई है. (तिबरानी और बेहिक़ी) सिराते मुस्तक़ीम का मतलब इस्लाम या क़ुरआन नबीये करीम (अल्लाह के दुरूद और सलाम उनपर) का रहन सहन या हुज़ूर या हुज़ूर के घर वाले और साथी हैं. इससे साबित होता है कि सिराते मुस्तक़ीम यानी सीधा रास्ता एहले सुन्नत का तरीक़ा है जो नबीये करीम सल्लाहो अलैहे वसल्लम के घराने वालों, उनके साथी और सुन्नत व क़ुरआन और मुस्लिम जगत सबको मानते हैं.

"सिरातल लज़ीना अनअम्ता अलैहिम"(यानी रास्ता उनका जिनपर तुने एहसान किया) यह पहले वाले वाक्य या जुमले की तफ़सील यानी विवरण है कि सिराते मुस्तक़ीम से मुसलमानों का तरीक़ा मुराद है. इससे बहुत सी बातों का हल निकलता है कि जिन बातों पर बुज़ुर्गों ने अमल किया वही सीधा रास्ता की तारीफ़ में आता है.
"गै़रिल मग़दूबे अलैहिम वलद दॉल्लीन "(यानी न उनका जिनपर ग़ज़ब हुआ और न बहके हुओ का) इसमें हिदायत दी गई है कि सच्चाई की तलाश करने वालों को अल्लाह के दुश्मनों से दूर रहना चाहिये और उनके रास्ते, रश्मों और रहन सहन के तरीक़े से परहेज़ रखना ज़रूरी है. हदीस की किताब तिरमिजी़ में आया है कि "मग़दूबे अलैहिम" यहूदियों और "दॉल्लीन" इसाईयों के लिये आया है.

सूरए फ़ातिहा के ख़त्म पर "आमीन" कहना सुन्नत यानी नबी का तरीक़ा है, "आमीन" के मानी है "ऐसा ही कर" या "कु़बूल फ़रमा". ये क़ुरआन का शब्द नहीं है. सूरए फ़ातिहा नमाज़ में पढ़ी जाने या नमाज़ के अलावा, इसके आख़िर में आमीन कहना सुन्नत है.
हज़रत इमामे अअज़म का मज़हब यह है कि नमाज़ में आमीन आहिस्ता या धीमी आवाज़ में कही जाए.