Monday, September 20, 2010

quran in hindi

This blog is Transfer to

quraninhindi.wordpress.com

click here to read quran in hindi

Tuesday, September 7, 2010

सूरए बक़रह _ दसवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ दसवाँ रूकू
और जब हमने बनी इस्राईल से एहद लिया कि अल्लाह के सिवा किसी को न पूजो और माँ बाप के साथ भलाई करो (1)
और रिश्तेदारों और यतीमों (अनाथों) और मिस्कीनों (दरिद्रों) से और लोगों से अच्छी बात कहो (2)
और नमाज़ क़ायम रखों और ज़कात दो, फिर तुम फिर गए (3)
मगर तुम में के थोड़े (4)
और तुम मुंह फेरने वाले हो(5)
और जब हमने तुमसे एहद लिया कि अपनों का ख़ून न करना और अपनों को अपनी बस्तियों से न निकालना फिर तुमने उसका इक़रार किया और तुम गवाह हो फिर ये जो तुम हो अपनों को क़त्ल करने लगे और अपने मे से एक समूह को उनके वतन से निकालते हो उनपर मदद देते हो (उनके ख़िलाफ या दुश्मन को) गुनाह और ज्य़ादती में और अगर वो क़ैदी होकर तुम्हारे पास आएं तो बदला देकर छुड़ा लेते हो और उनका निकालना तुम पर हराम है (6)
तो क्या ख़ुदा के कुछ हुक़्मों पर ईमान लाते हो और कुछ से इन्कार करते हो? तो जो तुम ऐसा करे उसका बदला क्या है, मगर यह कि दुनिया में रूसवा (ज़लील)(7)
हो, और क़यामत में सख़्ततर अज़ाब की तरफ़ फेरे जाएंगे और अल्लाह तुम्हारे कौतुकों से बेख़बर नहीं (8)
ये हैं वो लोग जिन्होंने आख़िरत के बदले दुनिया की ज़िन्दग़ी मोल ली, तो न उनपर से अज़ाब हल्का हो और उनकी मदद की जाए(86)

तफ़सीर : सूरए बक़रह - दसवाँ रूकू

(1) अल्लाह तआला ने अपनी इबादत का हुक्म फ़रमाने के बाद माँ बाप के साथ भलाई करने का आदेश दिया. इससे मालूम होता है कि माँ बाप की ख़िदमत बहुत ज़रूरी है. माँ बाप के साथ भलाई के ये मानी हैं कि ऐसी कोई बात न कहे और कोई ऐसा काम न करे जिससे उन्हें तकलीफ़ पहुंचे और अपने शरीर और माल से उनकी ख़िदमत में कोई कसर न उठा रखे. जब उन्हें ज़रूरत हो उनके पास हाज़िर रहे. अगर माँ बाप अपनी ख़िदमत के लिये नफ़्ल (अतिरिक्त) इबादत छोड़ने का हुक्म दें तो छोड़ दे, उनकी ख़िदमत नफ़्ल से बढ़कर है. जो काम वाजिब (अनिवार्य) है वो माँ बाप के हुक्म से छोड़े नहीं जा सकते. माँ बाप के साथ एहसान के तरीक़े जो हदीसों से साबित हैं ये हैं कि दिल की गहराइयो से उनसे महब्बत रखे, बोल चाल, उठने बैठने में अदब का ख़याल रखे, उनकी शान में आदर के शब्द कहे, उनको राज़ी करने की कोशिश करता रहे, अपने अच्छे माल को उनसे न बचाए. उनके मरने के बाद उनकी वसीयतों को पूरा करे, उनकी आत्मा की शांति के लिये दानपुन करे, क़ुरआन का पाठ करे, अल्लाह तआला से उनके गुनाहों की माफ़ी चाहे, हफ़्ते में कम से कम एक दिन उनकी क़ब्र पर जाए. (फ़त्हुल अज़ीज़) माँ बाप के साथ भलाई करने में यह भी दाख़िल है कि अगर वो गुनाहों के आदी हों या किसी बदमज़हबी में गिरफ़्तार हों तो उनकों नर्मी के साथ अच्छे रास्ते पर लाने की कोशिश करता रहे. (ख़ाज़िन)

(2) अच्छी बात से मुराद नेकियों की रूचि दिलाना और बुराईयों से रोकना है. हज़रत इब्ने अब्बास ने फ़रमाया कि मानी ये है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शान में सच बात कहो. अगर कोई पूछे तो हुज़ूर के कमालात और विशेषताएं सच्चाई के साथ बयान कर दो और आपके गुण मत छुपाओ.

(3) एहद के बाद

(4) जो ईमान ले आए, हज़रत अबदुल्लाह बिन सलाम और उनके साथियों की तरह, तो उन्होंने एहद पूरा किया.

(5) और तुम्हारी क़ौम की आदत ही विरोध करना और एहद से फिर जाना है.

(6) तौरात में बनी इस्त्राईल से एहद लिया गया था कि वो आपस में एक दूसरे को क़त्ल न करें, वतन से न निकालें और जो बनी इस्त्राईल किसी की क़ैद में हो उसको माल देकर छुड़ा लें, इस पर उन्होंने इक़रार भी किया, अपने नफ़्स पर गवाह भी हुए लेकिन क़ायम न रहे और इससे फिर गए. मदीने के आसपास यहूदियो के दो समुदाय बनी कुरैज़ा और बनी नुज़ैर रहा करते थे. मदीने के अन्दर दो समुदाय औस और ख़ज़रज रहते थे. बनी क़ुरैज़ा औस के साथी थे और बनी नुज़ैर ख़ज़रज के, यानी हर एक क़बीले ने अपने सहयोगी के साथ क़समाक़समी की थी कि अगर हम में से किसी पर कोई हमला करे तो दूसरा उसकी मदद करेगा. औस और ख़ज़रज आपस में लड़ते थे. बनी क़ुरैज़ा औस की और बनी नुज़ैर ख़ज़रज की मदद के लिये आते थे. और सहयोगी के साथ होकर आपस में एक दूसरे पर तलवार चलाते थे. बनी क़ुरैज़ा बनी नुज़ैर को और वो बनी क़ुरैज़ा को क़त्ल करते थे और उनके घर वीरान कर देते थे, उन्हें उनके रहने की जगहों से निकाल देते थे, लेकिन जब उनकी क़ौम के लोगे को उनके सहयोगी क़ैद करते थे तो वो उनको माल देकर छुड़ा लेते थे. जैसे अगर बनी नुज़ैर का कोई व्यक्ति औस के हाथों में गिरफ्तार होता तो बनी क़ुरैज़ा औस को माल देकर उसको छुड़ा लेते जबकि अगर वही व्यक्ति लड़ाई के वक़्त उनके निशाने पर आ जाता तो उसके मारने में हरगिज़ नहीं झिझकते. इस बात पर मलामत की जाती है कि जब तुमने अपनों का ख़ून न बहाने और उनको बस्तियों से न निकालने और उनके क़ैदियोँ को छुड़ाने का एहद किया था तो इसके क्या मानी कि क़त्ल और खदेड़ने में तो झिझको नहीं, और गिरफ़्तार हो जाएं तो छुड़ाते फिरो. एहद में कुछ मानना और कुछ न मानना क्या मानी रखता है. जब तुम क़त्ल और अत्याचार से न रूक सके तो तुमने एहद तोड़ दिया और हराम किया और उसको हलाल जानकर काफ़िर हो गए. इस आयत से मालूम हुआ कि ज़ुल्म और हराम पर मदद करना भी हराम है. यह भी मालूम हुआ कि यक़ीनी हराम को हलाल जानना कुफ़्र है, यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह की किताब के एक हुक्म का न मानना भी सारी किताब का इन्कार और कुफ़्र है. इस में यह चेतावनी है कि जब अल्लाह के निर्देशों में से कुछ का मानना कुछ का न मानना कुफ़्र हुआ तो यहूदियों को हज़रत सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का इन्कार करने के साथ हज़रत मूसा की नबुव्वत को मानना कुफ़्र से नहीं बचा सकता.

(7) दुनिया में तो यह रूस्वाई हुई कि बनी क़ुरैज़ा सन 3 हिजरी में मारे गए. एक दिन में उनके सात सौ आदमी क़त्ल किये गये थे. और बनी नुज़ैर इससे पहले ही वतन से निकाल दिये गए थे. सहयोगियों की ख़ातिर अल्लाह के एहद के विरोध का यह वबाल था. इससे मालूम हुआ कि किसी की तरफ़दारी में दीन का विरोध करना आख़िरत के अज़ाब के अलावा दुनिया में भी ज़िल्लत और रूसवाई का कारण होता हैं.

(8) इस में जैसे नाफ़रमानों के लिये सख़्त फटकार है कि अल्लाह तआला तुम्हारे कामों से बेख़बर नहीं है, तुम्हारी नाफ़रमानियों पर भारी अज़ाब फ़रमाएगा, ऐसे ही ईमान वालों और नेक लोगों के लिये ख़ुशख़बरी है कि उन्हें अच्छे कामों का बेहतरीन इनाम मिलेगा. (तफ़सीरे कबीर)

सूरए बक़रह _ नवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ नवाँ रूकू
और जब तुमने एक ख़ून किया तो एक दूसरे पर उसकी तोहमत (आरोप) डालने लगे और अल्लाह को ज़ाहिर करना था जो तुम छुपाते थे तो हमने फ़रमाया उस मक्त़ूल को उस गाय का एक टुकड़ा मारो (1)
अल्लाह यूं ही मुर्दें ज़िन्दा करेगा और तुम्हें अपनी निशानियां दिखाता है कि कहीं तुम्हें अक्ल़ हो (2)
फिर उसके बाद तुम्हारे दिल सख्त़ हो गये (3)
तो वह पत्थरों जैसे है बल्कि उनसे भी ज्य़ादा करें और पत्थरों में तो कुछ वो हैं जिनसे नदियां बह निकलती हैं और कुछ वो है जो फट जाते हैं तो उनसे पानी निकलता हैं और कुछ वो हैं जो अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं (4)
और अल्लाह तुम्हारे कौतुकों से बेख़बर नहीं तो ऐ मुसलमानों, क्या तुम्हें यह लालच है कि यहूदी तुम्हारा यक़ीन लाएंगे और उनमें का तो एक समूह वह था कि अल्लाह का कलाम सुनते फिर समझने के बाद उसे जान बूझकर बदल देते (5)
और जब मुसलमानों से मिलें तो कहें हम ईमान लाए (6)
और जब आपस में अकेले हो तो कहें वह इल्म जो अल्लाह ने तुम पर खोला मुसलमानों से बयान किये देते हो कि उससे तुम्हारे रब के यहाँ तुम्हीं पर हुज्जत (तर्क) लाएं, क्या तुम्हें अक्ल़ नहीं क्या नहीं जानते कि अल्लाह जानता है जो कुछ वो छुपाते हैं और जो कुछ वो ज़ाहिर करते हैं और उनमें कुछ अनपढ़ हैं कि जो किताब (7)
को नहीं जानते मगर ज़बानी पढ़ लेना(8)
या कुछ अपनी मनघड़त और वो निरे गुमान (भ्रम) में है तो ख़राबी है उनके लिये जो किताब अपने हाथ से लिखें फिर कह दें ये ख़ुदा के पास से है कि इसके बदले थोड़े दाम हासिल करें (9)
तो ख़राबी है उनके लिये उनके हाथों के लिखे से और ख़राबी उनके लिये उस कमाई से और बोले हमें तो आग न छुएगी मगर गिनती के दिन (10)
तुम फ़रमादों क्या ख़ुदा से तुमने कोई एहद (वचन) ले रखा है? जब तो अल्लाह कभी अपना एहद ख़िलाफ़ न करेगा (11)
या ख़ुदा पर वह बात कहते हो जिसका तुम्हें इल्म नहीं हाँ क्यों नहीं जो गुनाह कमाए और उसकी ख़ता उसे घेर ले(12)
वह दोजख़ वालों में है, उन्हें हमेशा उसमें रहना और जो ईमान लाए और अच्छे काम किये वो जन्नत वाले हैं, उन्हें हमेशा उसमें रहना (82)



तफ़सीर : सूरए बक़रह - नवाँ रूकू
(1) बनी इस्त्राईल ने गाय ज़िब्ह करके उसके किसी अंग से मुर्दे को मारा. वह अल्लाह के हुक्म से ज़िन्दा हुआ. उसके हल्क़ से ख़ून के फ़व्वारे जारी थे. उसने अपने चचाज़ाद भाई को बताया कि इसने मुझे क़त्ल किया है. अब उसको भी क़ुबूल करना पड़ा और हज़रत मूसा ने उस पर क़िसास का हुक्म फ़रमाया और उसके बाद शरीअत का हुक्म हुआ कि क़ातिल मृतक की मीरास से मेहरूम रहेगा. लेकिन अगर इन्साफ़ वाले ने बाग़ी को क़त्ल किया या किसी हमला करने वाले से जान बचाने के लिये बचाव किया, उसमें वह क़त्ल हो गया तो मृतक की मीरास से मेहरूम न रहेगा.

(2) और तुम समझो कि बेशक अल्लाह तआला मुर्दे ज़िन्दा करने की ताक़त रखता है और इन्साफ़ के दिन मुर्दो को ज़िन्दा करना और हिसाब लेना हक़ीक़त है.

(3) क़ुदरत की ऐसी बड़ी निशानियों से तुमने इबरत हासिल न की.

(4) इसके बावुजूद तुम्हारे दिल असर क़ुबूल नहीं करते. पत्थरों में अल्लाह ने समझ और शऊर दिया है, उन्हें अल्लाह का ख़ौफ़ होता है, वो तस्बीह करते हैं इम मिन शैइन इल्ला युसब्बिहो बिहम्दिही यानी कोई चीज़ ऐसी नहीं जो अल्लाह की तारीफ़ में उसकी पाकी न बोलती हो. (सूरए बनी इस्त्राईल, आयत 44). मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत जाबिर (अल्लाह उनसे राज़ी) से रिवायत है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया मैं उस पत्थर को पहचानता हूँ जो मेरी नबुव्वत के इज़्हार से पहले मुझे सलाम किया करता था, तिरमिज़ी में हज़रत अली (अल्लाह उनसे राज़ी) से रिवायत है कि मैं सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ मक्का के आस पास के इलाक़े में गया. जो पेड़ या पहाड़ सामने आता था अस्सलामो अलैका या रसूलल्लाह अर्ज़ करता था.

(5) जैसे उन्होंने तौरात में कतर ब्योंत की और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ के अल्फ़ाज़ बदल डाले.

(6) यह आयत उन यहूदियों के बारे में नाज़िल हुई जो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने में थे. इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया, यहूदी मुनाफ़िक़ जब सहाबए किराम से मिलते तो कहते कि जिसपर तुम ईमान लाए, उस पर हम भी ईमान लाए. तुम सच्चाई पर हो और तुम्हारे सरदार मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम सच्चे हैं, उनका क़ौल सच्चा है. उनकी तारीफ़ और गुणगान अपनी किताब तौरात में पाते हैं. इन लोगों पर यहूद के सरदार मलामत करते थे. "व इज़ा ख़ला बअदुहुम" (और जब आपस में अकेले हों) में इसका बयान है. (ख़ाज़िन). इससे मालूम हुआ कि सच्चाई छुपाना और उनके कमालात का इन्कार करना यहूदियोँ का तरीक़ा है. आजकल के बहुत से गुमराहों की यही आदत है.

(7) किताब से तौरात मुराद है.

(8) अमानी का अर्थ है ज़बानी पढ़ लेना. यह उमनिया का बहुवचन है. हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत है कि आयत के मानी ये हैं कि किताब को नहीं जानते मगर सिर्फ़ ज़बानी पढ़ लेना, बिना समझे (ख़ाज़िन). कुछ मुफ़स्सिरों ने ये मानी भी बयान किये हैं कि "अमानी" से वो झूटी गढ़ी हुई बातें मुराद हैं जो यहूदियोँ ने अपने विद्वानों से सुनकर बिना जांच पड़ताल किये मान ली थीं.

(9) जब सैयदे अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीनए तैय्यिबह तशरीफ़ लाए तो यहूदियों के विद्वानों और सरदारों को यह डर हुआ कि उनकी रोज़ी जाती रहेगी और सरदारी मिट जाएगी क्योंकि तौरात में हुज़ूर का हुलिया (नखशिख) और विशेषताएं लिखी है. जब लोग हुज़ूर को इसके अनुसार पाएंगे, फ़ौरन ईमान ले आएंगे और अपने विद्वानों और सरदारों को छोड़ देंगे. इस डर से उन्होंने तौरात के शब्दों को बदल डाला और हुज़ूर का हुलिया कुछ का कुछ कर दिया. मिसाल के तौर पर तौरात में आपकी ये विशेषताएं लिखी थीं कि आप बहुत ख़ूबसूरत हैं, सुंदर बाल वाले, सुंदर आँख़े सुर्मा लगी जैसी, क़द औसत (मध्यम) दर्जे का है. इसको मिटाकर उन्होंने यह बनाया कि हुज़ूर का क़द लम्बा, आंख़े कंजी, बाल उलझे हुए हैं. यही आम लोगों को सुनाते, यही अल्लाह की किताब का लिखा बताते और समझते कि लोग हुज़ूर को इस हुलिये से अलग पाएंगे तो आप पर ईमान न लाएंगे, हमारे ही असर में रहेंगे और हमारी कमाई में कोई फ़र्क़ नहीं आएगा.

(10) हज़रत इब्ने अब्बास से रिवायत है कि यहूदी कहते कि दोज़ख़ में वो हरगिज न दाख़िल होंगे मगर सिर्फ़ उतनी मुद्दत के लिये जितने अर्से उनके पूर्वजों ने बछड़ा पूजा था और वो चालीस दिन हैं, उसके बाद वो अज़ाब से छूट जाएंगे, इस पर यह आयत उतरी.

(11) क्योंकि झूट बड़ी बुराई है और बुराई अल्लाह की ज़ात से असम्भव. इसलिये उसका झूट तो मुमकिन नहीं लेकिन जब अल्लाह तआला ने तुमसे सिर्फ़ चालीस रोज़ अज़ाब के बाद छोड़ देने का वादा ही नहीं फ़रमाया तो तुम्हारा कहना झूट हुआ.

(12) इस आयत में गुनाह से शिर्क और कुफ़्र मुराद है. और "घेर लेने" से यह मुराद है कि निजात के सारे रास्ते बन्द हो जाएं और कुफ़्र तथा शिर्क पर ही उसको मौत आए क्योंकि ईमान वाला चाहे कैसा ही गुनाहगार हो, गुनाहों से घिरा नहीं होता, इसलिये कि ईमान जो सबसे बड़ी फ़रमाँबरदारी है, वह उसके साथ है.

सूरए बक़रह _ आठवाँ रूकू

सूरए बक़रह _ आठवाँ रूकू
बेशक ईमान वाले और यहूदियों और ईसाइयों और सितारों के पुजारियों में से वो कि सच्चे दिल से अल्लाह और
पिछले दीन पर ईमान लाएं और नेक काम करें उन का सवाब पुण्य उनके रब के पास हैं और न उन्हें कुछ अन्देशा
(आशंकाद) हो और न कुछ ग़म (1)
और जब हमने तुमसे एहद लिया (2)
और तुम पर तूर (पहाड़) को ऊंचा किया (3)
और जो कुछ हम तुमको देते हैं ज़ोर से(4)
और उसके मज़मून याद करो इस उम्मीद पर कि तुम्हें परहेज़गारी मिले फिर उसके बाद तुम फिर गए तो
अगर अल्लाह की कृपा और उसकी रहमत तुम पर न होती तो तुम टोटे वालों में हो जाते (5)
और बेशक ज़रूर तुम्हें मालूम है तुम में के वो जिन्होंने हफ्ते (शनिवार) में सरकशी की (6)
तो हमने उनसे फ़रमाया कि हो जाओ बन्दर धुत्कारे हुए तो हमने (उस बस्ती का) ये वाक़िया (घटना) उसके
आगे और पीछे वालों के लिये इबरत कर दिया और परहेज़गारों के लिये नसीहत और जब मूसा ने अपनी कौम से
फ़रमाया खुदा तुम्हें हुक्म देता है कि एक गाय ज़िब्ह करो(7)
बोले की आप हमें मसख़रा बनाते हैं (8)
फ़रमाया ख़ुदा की पनाह कि मैं जाहिलों से हूं(9)
बोले अपने रब से दुआ कीजिये कि वह हमें बता दे गाय कैसी? कहा, वह फ़रमाता है कि वह एक गाय है न बूढ़ी और न ऊसर, बल्कि उन दोनों के बीच में, तो करो जिसका तुम्हें हुक्म होता है बोले अपने रब से दुआ कीजिये हमें बता दे उसका रंग क्या है? कहा वह फ़रमाता है वह एक पीली गाय है जिसकी रंगत डहडहाती, देखने वालों को ख़ुशी देती बोले अपने रब से दुआ कीजिये कि हमारे लिये साफ़ बयान करदे वह गाय कैसी है? बेशक गायों में हमको शुबह पड़ गया और अल्लाह चाहे तो हम राह पा जाएंगे(10)
कहा वह फ़रमाता है कि वह एक गाय है जिससे ख़िदमत नहीं ली जाती कि ज़मीन जोते और न खेती को पानी दे. बे ऐब है, जिसमें कोई दाग़ नहीं. बोले अब आप ठीक बात लाए (11)
तो उसे ज़िब्ह किया और ज़िब्ह करते मालूम न होते थे (12)


तफ़सीर : सूरए बक़रह - आठवाँ रूकू
(1) इब्ने जरीर और इब्ने अबी हातिम ने सदी से रिवायत की कि यह आयत हज़रत सलमान फ़ारसी (अल्लाह उनसे राज़ी हो) के साथियों के बारे में उतरी.

(2) कि तुम तौरात मानोगे और उस पर अमल करोगे. फिर तुमने उसे निर्देशों को बोझ जानकर क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया. जबकि तुमने ख़ुद अपनी तरफ़ से हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से ऐसी आसमानी किताब की प्रार्थना की थी जिसमें शरीअत के क़ानून और इबादत के तरीक़े विस्तार से दर्ज हों. और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने तुमसे बार बार इसके क़ुबूल करने और इस पर अमल करने का एहद लिया था. जब वह किताब दी गई तो तुमने उसे क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया और एहद पूरा न किया.

(3) बनी इस्त्राईल के एहद तोड़ने के बाद हज़रत जिब्रील ने अल्लाह के हुक्म से तूर पहाड़ को उठाकर उनके सरों पर लटका दिया और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया तुम एहद क़ुबूल करो वरना ये पहाड़ तुमपर गिरा दिया जाएगा, और तुम कुचल डाले जाओगे. वास्तव में पहाड़ का सर पर लटका दिया जाना अल्लाह की निशानी और उसकी क़ुदरत का खुला प्रमाण है. इससे दिलों को इत्मीनान हासिल होता है कि बेशक यह रसूल अल्लाह की क़ुव्वत और क़ुदरत के ज़ाहिर करने वाले हैं. यह इत्मीनान उनको मानने और एहद पूरा करने का अस्ल कारण है.

(4) यानी पूरी कोशिश के साथ.

(5) यहाँ फ़ज़्ल व रहमत से या तौबह की तौफ़ीक़ मुराद है या अज़ाब में विलम्ब (देरी.) एक कथन यह भी है कि अल्लाह की कृपा और रहमत से हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की पाक ज़ात मुराद हैं. मानी ये है कि अगर तुम्हें नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के वुजूद (अस्तित्व) की दौलत न मिलती और आपका मार्गदर्शन नसीब न होता तो तुम्हारा अंजाम नष्ट होना और घाटा होता.

(6) इला शहर में बनी इस्त्राईल आबाद थे उन्हें हुक्म था कि शनिवार का दिन इबादत के लिये ख़ास कर दें, उस रोज़ शिकार न करें, और सांसारिक कारोबार बन्द रखें. उनके एक समूह ने यह चाल की कि शुक्रवार को दरिया के किनारे बहुत से गढ़े खोदते और सनीचर की सुबह को दरिया से इन गढ़ो तक नालियां बनाते जिनके ज़रिये पानी के साथ मछलियां आकर गढ़ों में कै़द हो जातीं. इतवार को उन्हें निकालते और कहते कि हम मछली को पानी से सनीचर के दिन नहीं निकालतें. चालीस या सत्तर साल तक यह करते रहे. जब हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम की नबुव्वत का एहद आया तो आपने उन्हें मना किया और फ़रमाया कि क़ैद करना ही शिकार है, जो सनीचर को करते हो, इससे हाथ रोको वरना अज़ाब में गिरफ़्तार किये जाओगे. वह बाज़ न आए. आपने दुआ फ़रमाई. अल्लाह तआला ने उन्हें बन्दरों की शक्ल में कर दिया, उनकी अक्ल और दूसरी इन्द्रियाँ (हवास) तो बाक़ी रहे, केवल बोलने की क़ुव्वत छीन ली गई. शरीर से बदबू निकलने लगी. अपने इस हाल पर रोते रोते तीन दिन में सब हलाक हो गए. उनकी नस्ल बाक़ी न रही. ये सत्तर हज़ार के क़रीब थे. बनी इस्त्राईल का दूसरा समूह जो बारह हज़ार के क़रीब था, उन्हें ऐसा करने से मना करता रहा. जब ये न माने तो उन्होंने अपने और उनके मुहल्लों के बीच एक दीवार बनाकर अलाहिदगी कर ली. इन सबने निजात पाई. बनी इस्त्राईल का तीसरा समूह ख़ामोश रहा, उसके बारे में हज़रत इब्ने अब्बास के सामने अकरमह ने कहा कि वो माफ़ कर दिये गए क्योंकि अच्छे काम का हुक्म देना फ़र्जे किफ़ाया है, कुछ ने कर लिया तो जैसे कुल ने कर लिया. उनकी ख़ामोशी की वजह यह थी कि ये उनके नसीहत मानने की तरफ़ से निराश थे. अकरमह की यह तक़रीर हज़रत इब्ने अब्बास को बहुत पसन्द आई और आप ख़ुशी से उठकर उनसे गले मिले और उनका माथा चूमा. (फ़त्हुल अज़ीज़). इससे मालूम हुआ कि ख़ुशी में गले मिलना रसूलुल्लाह के साथियों का तरीक़ा है. इसके लिये सफ़र से आना और जुदाई के बाद मिलना शर्त नहीं.

(7) बनी इस्त्राईल में आमील नाम का एक मालदार था. उसके चचाज़ाद भाई ने विरासत के लालच में उसको क़त्ल करके दूसरी बस्ती के दर्वाजे़ पर डाल दिया और ख़ुद सुबह को उसके ख़ून का दावेदार बना. वहां के लोगों ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से विनती की कि आप दुआ फ़रमाएं कि अल्लाह तआला सारी हक़ीक़त खोल दे. इस पर हुक्म हुआ कि एक गाय ज़िब्ह करके उसका कोई हिस्सा मक़तूल (मृतक) को मारें, वह ज़िन्दा होकर क़ातिल का पता देगा.

(8) क्योंकि मक़तूल (मृतक) का हाल मालूम होने और गाय के ज़िब्ह में कोई मुनासिबत (तअल्लुक़) मालूम नहीं होती.

(9) ऐसा जवाब जो सवाल से सम्बन्ध न रखे जाहिलो का काम है. या ये मानी हैं कि मुहाकिमे (न्याय) के मौक़े पर मज़ाक उड़ाना या हंसी करना जाहिलों का काम है. और नबियों की शान उससे ऊपर है. बनी इस्त्राईल ने समझ लिया कि गाय का ज़िब्ह करना अनिवार्य है तो उन्होंने अपने नबी से उसकी विशेषताएं और निशानियाँ पूछीं. हदीस शरीफ़ में है कि अगर बनी इस्त्राईल यह बहस न निकालते तो जो गाय ज़िब्ह कर देते, काफ़ी हो जाती.

(10) हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, अगर वो इन्शाअल्लाह न कहते, हरग़िज़ वह गाय न पाते. हर नेक काम में इन्शाअल्लाह कहना बरकत का कारण है.

(11) यानी अब तसल्ली हुई और पूरी शान और सिफ़त मालूम हुई. फिर उन्होंने गाय की तलाश शुरू की. उस इलाक़े में ऐसी सिर्फ़ एक गाय थी. उसका हाल यह है कि बनी इस्त्राईल में एक नेक आदमी थे और उनका एक छोटा सा बच्चा था उनके पास सिवाए एक गाय के बच्चे के कुछ न रहा था. उन्हों ने उसकी गर्दन पर मुहर लगाकर अल्लाह के नाम पर छोड़ दिया और अल्लाह की बारगाह में अर्ज़ किया - ऐ रब, मैं इस बछिया को इस बेटे के लिये तेरे पास अमानत रखता हूं. जब मेरा बेटा बड़ा हो, यह उसके काम आए. उनका तो इन्तिक़ाल हो गया. बछिया जंगल में अल्लाह की हिफ़ाज़त में पलती रही. यह लड़का बड़ा हुआ और अल्लाह के फ़ज़्ल से नेक और अल्लाह से डरने वाला, माँ का फ़रमाँबरदार था. एक रोज़ उसकी माँ ने कहा बेटे तेरे बाप ने तेरे लिये अमुक जंगल में ख़ुदा के नाम पर एक बछिया छोड़ी है. वह अब जवान हो गई होगी. उसको जंगल से ले आ और अल्लाह से दुआ कर कि वह तुझे अता फ़रमाए. लड़के ने गाय को जंगल में देखा और माँ की बताई हुई निशानियाँ उसमें पाई और उसको अल्लाह की क़सम देकर बुलाया, वह हाज़िर हुई. जवान उसको माँ की ख़िदमत में लाया. माँ ने बाज़ार ले जाकर तीन दीनार में बेचने का हुक्म दिया और यह शर्त की कि सौदा होने पर फिर उसकी इजाज़त हासिल की जाए. उस ज़माने में गाय की क़ीमत उस इलाक़े में तीन दीनार ही थी. जवान जब उस गाय को बाज़ार में लाया तो एक फ़रिश्ता ख़रीदार की सूरत में आया और उसने गाय की क़ीमत छ: दीनार लगा दी, मगर इस शर्त से कि जवान माँ की इजाज़त का पाबन्द न हो. जवान ने ये स्वीकार न किया और माँ से यह तमाम क़िस्सा कहा. उसकी माँ ने छ: दीनार क़ीमत मंजू़र करने की इजाज़त तो दे दी मगर सौदे में फिर दोबारा अपनी मर्ज़ी दरयाफ़्त करने की शर्त रखी. जवान फिर बाज़ार में आया. इस बार फ़रिश्ते ने बारह दीनार क़ीमत लगाई और कहा कि माँ की इजाज़त पर मौक़ूफ़ (आधारित) न रखो. जवान न माना और माँ को सूचना दी. वह समझदार थी, समझ गई कि यह ख़रीदार नहीं कोई फ़रिश्ता है जो आज़मायश के लिये आता है. बेटे से कहा कि अब की बार उस ख़रीदार से यह कहना कि आप हमें इस गाय की फ़रोख़्त करने का हुक्म देते हैं या नहीं. लड़के ने यही कहा. फ़रिश्ते ने जवाब दिया अभी इसको रोके रहो. जब बनी इस्त्राईल ख़रीदने आएं तो इसकी क़ीमत यह मुक़र्रर करना कि इसकी खाल में सोना भर दिया जाए. जवान गाय को घर लाया और जब बनी इस्त्राईल खोजते खोजते उसके मकान पर पहुंचे तो यही क़ीमत तय की और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की ज़मानत पर वह गाय बनी इस्त्राईल के सुपुर्द की. इस क़िस्से से कई बातें मालूम हुई. (1) जो अपने बाल बच्चों को अल्लाह के सुपुर्द करे, अल्लाह तआला उसकी ऐसी ही ऊमदा पर्वरिश फ़रमाता है. (2) जो अपना माल अल्लाह के भरोसे पर उसकी अमानत में दे, अल्लाह उसमें बरकत देता है. (3) माँ बाप की फ़रमाँबरदारी अल्लाह तआला को पसन्द है. (4) अल्लाह का फ़ैज़ (इनाम) क़ुर्बानी और ख़ैरात करने से हासिल होता है. (5) ख़ुदा की राह में अच्छा माल देना चाहिये. (6) गाय की क़ुरबानी उच्च दर्जा रखती है.

(12) बनी इस्त्राईल के लगातार प्रश्नों और अपनी रूस्वाई के डर और गाय की महंगी क़ीमत से यह ज़ाहिर होता था कि वो ज़िब्ह का इरादा नहीं रखतें, मगर जब उनके सवाल मुनासिब जवाबों से ख़त्म कर दिये गए तो उन्हें ज़िब्ह करना ही पड़ा.