Monday, August 30, 2010

सूरए बक़रह _ छटा रूकू

सूरए बक़रह _ छटा रूकू
ऐ याक़ूब की सन्तान, याद करो मेरा वह अहसान जो मैं ने तुमपर किया और यह कि इस सारे ज़माने पर तुम्हें बड़ाई दी (1)
और डरो उस दिन से जिस दिन कोई जान दूसरे का बदला न हो सकेगी(2)
और न क़ाफिर के लिये कोई सिफ़ारिश मानी जाए और न कुछ लेकर उसकी जान छोड़ी जाए और न उनकी मदद हो(3)
और (याद करो)जब हमने तुमको फ़िरऔन वालों से नजात बख्श़ी (छुटकारा दिलाया)(4)
कि तुमपर बुरा अजा़ब करते थे(5)
तुम्हारे बेटों को ज़िब्ह करते और तुम्हारी बेटियों को ज़िन्दा रखते(6)
और उसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से बड़ी बला थी या बड़ा इनाम(7)
और जब हमने तुम्हारे लिये दरिया फ़ाड़ दिया तो तुम्हें बचा लिया. और फ़िरऔन वालों को तुम्हारी आंखों के सामने डुबो दिया(8)
और जब हमने मूसा से चालीस रात का वादा फ़रमाया फिर उसके पीछे तुमने बछड़े की पूजा शुरू करदी और तुम ज़ालिम थे (9)
फिर उसके बाद हमने तुम्हें माफ़ी दी(10)
कि कहीं तुम अहसान मानो (11)
और जब हमने मूसा को किताब दी और सत्य और असत्य में पहचान कर देना कि कहीं तुम राह पर आओ और जब मूसा ने अपनी कौ़म से कहा ऐ मेरी कौ़म तुमने बछड़ा बनाकर अपनी जानों पर ज़ुल्म किया तो अपने पैदा करने वाले की तरफ़ लौट आओ तो आपस में एक दूसरे को क़त्ल करो(12)
यह तुम्हारे पैदा करने वाले के नज्द़ीक तुम्हारे लिये बेहतर है तो उसने तुम्हारी तौबह क़ुबूल की, बेशक वही है बहुत तौबह क़ुबूल करने वाला मेहरबान(13)
और जब तुमने कहा ऐ मूसा हम हरगिज़ (कदाचित) तुम्हारा यक़ीन न लाएंगे जब तक खुले बन्दों ख़ुदा को न देख लें तो तुम्हें कड़क ने आ लिया और तुम देख रहे थे फिर मेरे पीछे हमने तुम्हें ज़िन्दा किया कि कहीं तुम एहसान मानो और हमने बादल को तुम्हारा सायबान किया(14)
और तुमपर मत्र और सलवा उतारा, खाओ हमारी दी हुई सुथरी चीज़ें(15)
ओर उन्होंने कुछ हमारा न बिगाड़ा, हां अपनी ही जानों का बिगाड़ करते थे और जब हमने फ़रमाया उस बस्ती में जाओ (16)
फिर उसमें जहां चाहो, बे रोक टोक खाओ और दरवाज़ें में सजदा करते दाख़िल हो(17)
और कहो हमारे गुनाह माफ़ हों हम तुम्हारी ख़ताएं बख्श़ देंगे और क़रीब है कि नेकी वालों को और ज्य़ादा दें(18)
तो ज़ालिमों ने और बात बदल दी जो फ़रमाई गई थी उसके सिवा(19)
तो हमने आसमान से उनपर अज़ाब उतारा(20)
बदला उनकी बे हुकमी का (59)
तफ़सीर : सूरए बक़रह - छटा रूकू

(1) अलआलमीन (सारे ज़माने पर) उसके वास्तविक या हक़ीक़ी मानी में नहीं. इससे मुराद यह है कि मैं ने तुम्हारे पूर्वजों को उनके ज़माने वालों पर बुज़ुर्गी दी. यह बुज़ुर्गी किसी विशेष क्षेत्र में हो सकती है, जो और किसी उम्मत की बुज़ुर्गी को कम नहीं कर सकती. इसलिये उम्मते मुहम्मदिया के बारे में इरशाद हुआ "कुन्तुम खै़रा उम्मतिन" यानी तुम बेहतर हो उन सब उम्मतों में जो लोगों में ज़ाहिर हुई (सूरए आले इमरान, आयत 110). (रूहुल बयान, जुमल वग़ैरह)

(2) वह क़यामत का दिन है. आयत में नफ़्स दो बार आया है, पहले से मूमिन का नफ़्स, दूसरे से काफ़िर मुराद है. (मदारिक)

(3) यहाँ से रूकू के आख़िर तक दस नेअमतों का बयान है जो इन बनी इस्त्राईल के बाप दादा को मिलीं.

(4) क़िब्त और अमालीक़ की क़ौम से जो मिस्त्र का बादशाह हुआ. उस को फ़िरऔन कहते है. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के ज़माने के फ़िरऔन का नाम वलीद बिन मुसअब बिन रैयान है. यहां उसी का ज़िक्र है. उसकी उम्र चार सौ बरस से ज़्यादा हुई. आले फ़िरऔन से उसके मानने वाले मुराद है. (जुमल वग़ैरह)

(5) अज़ाब सब बुरे होते हैं "सूअल अज़ाब" वह कहलाएगा जो और अज़ाबों से ज़्यादा सख़्त हो. इसलिये आला हज़रत ने "बुरा अज़ाब" अनुवाद किया. फ़िरऔन ने बनी इस्त्राईल पर बड़ी बेदर्दी से मेहनत व मशक़्क़त के दुश्वार काम लाज़िम किये थे. पत्थरों की चट्टानें काटकर ढोते ढोते उनकी कमरें गर्दनें ज़ख़्मी हो गई थीं. ग़रीबों पर टैक्स मुक़र्रर किये थे जो सूरज डूबने से पहले ज़बरदस्ती वुसूल किये जाते थे. जो नादार किसी दिन टैकस अदा न कर सका, उसके हाथ गर्दन के साथ मिलाकर बांध दिये जाते थे, और महीना भर तक इसी मुसीबत में रखा जाता था,और तरह तरह की सख़्तियां निर्दयता के साथ की जाती थीं. ( ख़ाज़िन वग़ैरह)

(6) फ़िरऔन ने ख़्वाब देखा कि बैतुल मक़दिस की तरफ़ से आग आई उसने मिस्त्र को घेर कर तमाम क़िब्तियों को जला डाला, बनी इस्त्राईल को कुछ हानि न पहुंचाई. इससे उसको बहुत घबराहट हुई. काहिनों (तांत्रिकों) ने ख़्वाब की तअबीर (व्याख्या) में बताया कि बनी इस्त्राईल में एक लड़का पैदा होगा जो तेरी मौत और तेरी सल्तनत के पतन का कारण होगा. यह सुनकर फ़िरऔन ने हुक्म दिया कि बनी इस्त्राईल में जो लड़का पैदा हो. क़त्ल कर दिया जाए. दाइयां छान बीन के लिये मुक़र्रर हुई. बारह हजा़र और दूसरे कथन के अनुसार सत्तर हज़ार लड़के क़त्ल कर डाले गए और नव्वे हज़ार हमल (गर्भ) गिरा दिये गये. अल्लाह की मर्ज़ी से इस क़ौम के बूढ़े जल्द मरने लगे. क़िब्ती क़ौम के सरदारों ने घबराकर फ़िरऔन से शिकायत की कि बनी इस्त्राईल में मौत की गर्मबाज़ारी है इस पर उनके बच्चे भी क़त्ल किये जाते हैं, तो हमें सेवा करने वाले कहां से मिलेंगे. फ़िरऔन ने हुक्म दिया कि एक साल बच्चे क़त्ल किये जाएं और एक साल छोड़े जाएं. तो जो साल छोडने का था उसमें हज़रत हारून पैदा हुए, और क़त्ल के साल हज़रत मूसा की पैदाइशा हुई.

(7) बला इम्तिहान और आज़माइशा को कहते हैं. आज़माइश नेअमत से भी होती है और शिद्दत व मेहनत से भी. नेअमत से बन्दे की शुक्रगुज़ारी, और मेहनत से उसके सब्र (संयम और धैर्य) का हाल ज़ाहिर होता है. अगर "ज़ालिकुम."(और इसमें) का इशारा फ़िरऔन के मज़ालिम (अत्याचारों) की तरफ़ हो तो बला से मेहनत और मुसीबत मुराद होगी, और अगर इन अत्याचारों से नजात देने की तरफ़ हो, तो नेअमत.

(8) यह दूसरी नेअमत का बयान है जो बनी इस्त्राईल पर फ़रमाई कि उन्हें फ़िरऔन वालों के ज़ुल्म और सितम से नजात दी और फ़िरऔन को उसकी क़ौम समेत उनके सामने डुबो दिया. यहां आले फ़िरऔन (फ़िरऔन वालों) से फ़िरऔन और उसकी क़ौम दोनों मुराद हैं. जैसे कि "कर्रमना बनी आदमा" यानी और बेशक हमने औलादे आदम को इज़्ज़त दी (सूरए इसरा, आयत 70) में हज़रत आदम और उनकी औलाद दोनों शामिल हैं. (जुमल). संक्षिप्त वाक़िआ यह है कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम अल्लाह के हुक्म से रात में बनी इस्त्राईल को मिस्त्र से लेकर रवाना हुए, सुब्ह को फ़िरऔन उनकी खोज में भारी लश्कर लेकर चला और उन्हें दरिया के किनारे जा लिया. बनी इस्त्राईल ने फ़िरऔन का लश्कर देख़कर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से फ़रियाद की. आपने अल्लाह के हुक्म से दरिया में अपनी लाठी मारी, उसकी बरकत से दरिया में बारह ख़ुश्क रास्ते पैदा हो गए. पानी दीवारों की तरह खड़ा हो गया. उन दीवारों में जाली की तरह रौशनदान बन गए. बनी इस्त्राईल की हर जमाअत इन रास्तों में एक दूसरे को देखती और आपस में बात करती गुज़र गई. फ़िरऔन दरियाई रास्ते देखकर उनमें चल पड़ा. जब उसका सारा लश्कर दरिया के अन्दर आ गया तो दरिया जैसा था वैसा हो गया और तमाम फ़िरऔनी उसमें डूब गए. दरिया की चौड़ाई चार फरसंग थी. ये घटना बेहरे कुलज़म की है जो बेहरे फ़ारस के किनारे पर है, या बेहरे मा-वराए मिस्त्र की, जिसको असाफ़ कहते है. बनी इस्त्राईल दरिया के उस पार फ़िरऔनी लश्कर के डूबने का दृश्य देख रहे थे. यह वाक़िआ दसवीं मुहर्रम को हुआ. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने उस दिन शुक्र का रोज़ा रखा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने तक भी यहूदी इस दिन का रोज़ा रखते थे. हुज़ूर ने भी इस दिन का रोज़ा रखा और फ़रमाया कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की विजय की ख़ुशी मनाने और उसकी शुक्र गुज़ारी करने के हम यहूदियों से ज़्यादा हक़दार हैं. इस से मालूम हुआ कि दसवीं मुहर्रम यानी आशुरा का रोज़ा सुन्नत है. यह भी मालूम हुआ कि नबियों पर जो इनाम अल्लाह का हुआ उसकी यादगार क़ायम करना और शुक्र अदा करना अच्छी बात है. यह भी मालूम हुआ कि ऐसे कामों में दिन का निशिचत किया जाना रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सुन्नत है. यह भी मालूम हुआ कि नबियों की यादगार अगर काफ़िर लोग भी क़ायम करते हों जब भी उसको छोड़ा न जाएगा.

(9) फ़िरऔन और उसकी क़ौम के हलाक हो जाने के बाद जब हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम बनी इस्त्राईल को लेकर मिस्त्र की तरफ़ लौटे और उनकी प्रार्थना पर अल्लाह तआला ने तौरात अता करने का वादा फ़रमाया और इसके लिये मीक़ात निशिचत किया जिसकी मुद्दत बढ़ौतरी समेत एक माह दस दिन थी यानी एक माह ज़िलक़ाद और दस दिन ज़िलहज के. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम क़ौम में अपने भाई हज़रत हारून अलैहिस्सलाम को अपना ख़लीफ़ा व जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाकर, तौरात हासिल करने तूर पहाड़ पर तशरीफ़ ले गए, चालीस रात वहां ठहरे. इस अर्से में किसी से बात न की. अल्लाह तआला ने ज़बरजद की तख़्तियों में, आप पर तौरात उतारी. यहां सामरी ने सोने का जवाहरात जड़ा बछड़ा बनाकर क़ौम से कहा कि यह तुम्हारा माबूद है. वो लोग एक माह हज़रत का इन्तिज़ार करके सामरी के बहकाने पर बछड़ा पूजने लगे, सिवाए हज़रत हारून अलैहिस्सलाम और आपके बारह हज़ार साथियों के तमाम बनी इस्त्राईल ने बछड़े को पूजा. (ख़ाज़िन)

(10) माफ़ी की कैफ़ियत (विवरण) यह है कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि तौबह की सूरत यह है कि जिन्होंने बछड़े की पूजा नहीं की है, वो पूजा करने वालों को क़त्ल करें और मुजरिम राज़ी ख़ुशी क़त्ल हो जाएं. वो इस पर राज़ी हो गए. सुबह से शाम तक सत्तर हज़ार क़त्ल हो गए तब हज़रत मूसा और हज़रत हारून ने गिड़गिड़ा कर अल्लाह से अर्ज़ की. वही (देववाणी) आई कि जो क़त्ल हो चुके वो शहीद हुए, बाक़ी माफ़ फ़रमाए गए. उनमें के क़ातिल और क़त्ल होने वाले सब जन्नत के हक़दार हैं. शिर्क से मुसलमान मुर्तद (अधर्मी) हो जाता है, मुर्तद की सज़ा क़त्ल है क्योंकि अल्लाह तआला से बग़ावत क़त्ल और रक्तपात से भी सख़्ततर जुर्म है. बछड़ा बनाकर पूजने में बनी इस्त्राईल के कई जुर्म थे. एक मूर्ति बनाना जो हराम है, दूसरे हज़रत हारून यानी एक नबी की नाफ़रमानी, तीसरे बछड़ा पूजकर मुश्रिक (मूर्ति पूजक) हो जाना. यह ज़ुल्म फ़िरऔन वालों के ज़ुल्मों से भी ज़्यादा बुरा है. क्योंकि ये काम उनसे ईमान के बाद सरज़द हुए, इसलिये हक़दार तो इसके थे कि अल्लाह का अज़ाब उन्हें मुहलत न दे, और फ़ौरन हलाकत से कुफ़्र पर उनका अन्त हो जाए लेकिन हज़रत मूसा और हज़रत हारून की बदौलत उन्हें तौबह का मौक़ा दिया गया. यह अल्लाह तआला की बड़ी कृपा है.

(11) इसमें इशारा है कि बनी इस्त्राईल की सलाहियत फ़िरऔन वालों की तरह बातिल नहीं हुई थी और उनकी नस्ल से अच्छे नेक लोग पैदा होने वाले थे. यही हुआ भी, बनी इस्त्राईल में हज़ारों नबी और नेक गुणवान लोग पैदा हुए.

(12) यह क़त्ल उनके कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) के लिये था.

(13) जब बनी इस्त्राईल ने तौबह की और प्रायश्चित में अपनी जानें दे दीं तो अल्लाह तआला ने हुक्म फ़रमाया कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम उन्हें बछड़े की पूजा की माफ़ी मांगने के लिये हाज़िर लाएं. हज़रत उनमें से सत्तर आदमी चुनकर तूर पहाड पर ले गए. वो कहने लगे- ऐ मूसा, हम आपका यक़ीन न करेंगे जब तक ख़ुदा को रूबरू न देख लें. इस पर आसमान से एक भयानक आवाज़ आई जिसकी हैबत से वो मर गए. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने गिड़गिड़ाकर अर्ज की कि ऐ मेरे रब, मै बनी इस्त्राईल को क्या जवाब दूंगा. इस पर अल्लाह तआला ने उन्हें एक के बाद एक ज़िन्दा फ़रमाया. इससे नबियों की शान मालूम होती है कि हज़रत मूसा से "लन नूमिना लका" (ऐ मूसा हम हरग़िज तुम्हारा यक़ीन न लाएंगे) कहने की सज़ा में बनी इस्त्राईल हलाक किये गए. हुज़ूर सैयदे आलाम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के एहद वालों को आगाह किया जाता है कि नबियों का निरादर करना अल्लाह के प्रकोप का कारण बनता है, इससे डरते रहें. यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह तआला अपने प्यारों की दुआ से मुर्दे ज़िन्दा फ़रमा देता है.

(14) जब हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम फ़ारिग़ होकर बनी इस्त्राईल के लश्कर में पहुंचे और आपने उन्हें अल्लाह का हुक्म सुनाया कि मुल्के शाम हज़रत इब्राहीम और उनकी औलाद का मदफ़न (अन्तिम आश्रय स्थल) है, उसी में बैतुल मक़दिस है. उसको अमालिक़ा से आज़ाद कराने के लिए जिहाद करो और मिस्त्र छोड़कर वहीं अपना वतन बनाओं मिस्त्र का छोड़ना बनी इस्त्राईल पर बड़ा भारी था. पहले तो वो काफ़ी आगे पीछे हुए और जब अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ सिर्फ़ अल्लाह के हुक्म से मजबूर होकर हज़रत हारून और हज़रत मूसा के साथ रवाना हुए तो रास्ते में जो कठिनाई पेश आती, हज़रत मूसा से शिकायत करते. जब उस सहरा (मरूस्थल) में पहुंचे जहां हरियाली थी न छाया, न ग़ल्ला साथ था. वहां धूप की तेज़ी और भूख की शिकायत की. अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा की दुआ से सफ़ेद बादल को उनके सरों पर छा दिया जो दिन भर उनके साथ चलता. रात को उनके लिए प्रकाश का एक सुतून (स्तम्भ) उतरता जिसकी रौशनी में काम करते. उनके कपड़े मैले और पुराने न होते, नाख़ुन और बाल न बढ़ते, उस सफ़र में जो बच्चा पैदा होता उसका लिबास उसके साथ पैदा होता, जितना वह बढ़ता, लिबास भी बढ़ता.

(15) मन्न, तरंजबीन (दलिया) की तरह एक मीठी चीज़ थी, रोज़ाना सुब्ह पौ फटे सूरज निकलने तक हर आदमी के लिये एक साअ के बराबर आसमान से उतरती. लोग उसको चादरों में लेकर दिन भर खाते रहते. सलवा एक छोटी चिड़िया होती है. उसको हवा लाती. ये शिकार करके खाते. दोनों चीज़ें शनिवार को बिल्कुल न आतीं, बाक़ी हर रोज़ पहुंचतीं. शुक्रवार को और दिनों से दुगुनी आतीं. हुक्म यह था कि शुक्रवार को शनिवार के लिये भी ज़रूरत के अनुसार जमा कर लो मगर एक दिन से ज़्यादा का न जमा करो. बनी इस्त्राईल ने इन नेअमतों की नाशुक्री की. भंडार जमा किये, वो सड़ गए और आसमान से उनका उतरना बंद हो गया. यह उन्होंने अपना ही नुक़सान किया कि दुनिया में नेअमत से मेहरूम और आख़िरत में अज़ाब के हक़दार हुए.

(16) "उस बस्ती" से बैतुल मक़दिस मुराद है या अरीहा जो बैतुल मक़दिस से क़रीब है, जिसमें अमालिक़ा आबाद थे और उसको ख़ाली कर गए. वहां ग़ल्ले मेवे की बहुतात थी.

(17) यह दर्वाज़ा उनके लिये काबे के दर्जे का था कि इसमें दाख़िल होना और इसकी तरफ़ सज्दा करना गुनाहों के प्रायश्चित का कारण क़रार दिया गया.

(18) इस आयत से मालूम हुआ कि ज़बान से माफ़ी मांगना और बदन की इबादत सज्दा वग़ैरह तौबह का पूरक है. यह भी मालूम हुआ कि मशहूर गुनाह की तौबह ऐलान के साथ होनी चाहिये. यह भी मालूम हुआ कि पवित्र स्थल जो अल्लाह की रहमत वाले हों, वहाँ तौबह करना और हुक्म बजा लाना नेक फलों और तौबह जल्द क़ुबूल होने का कारण बनता है. (फ़त्हुल अज़ीज़). इसी लिये बुज़ुर्गों का तरीका़ रहा है कि नबियों और वलियों की पैदाइश की जगहों और मज़ारात पर हाज़िर होकर तौबह और अल्लाह की बारगाह में सर झुकाते हैं. उर्स और दर्गाहों पर हाज़िरी में भी यही फ़ायदा समझा जाता है.

(19) बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है कि बनी इस्त्राईल को हुक्म हुआ था कि दर्वाज़े में सज्दा करते हुए दाख़िल हों और ज़बान से "हित्ततुन" यानी तौबह और माफ़ी का शब्द कहते जाएं. उन्होंने इन दोनों आदेशों के विरूद्ध किया. दाख़िल तो हुए पर चूतड़ों के बल घिसरते और तौबह के शब्द की जगह मज़ाक के अंदाज़ में "हब्बतुन फ़ी शअरतिन" कहा जिसके मानी हैं बाल में दाना.

(20) यह अज़ाब ताऊन (प्लेग) था जिससे एक घण्टे में चौबीस हज़ार हलाक हो गए. यही हदीस की किताबों में है कि ताऊन पिछली उम्मतों के अज़ाब का शेष हिस्सा हैं. जब तुम्हारे शहर में फैले, वहां से न भागो. दूसरे शहर में हो तो ताऊन वाले शहर में न जाओ. सही हदीस में है कि जो लोग वबा के फैलने के वक़्त अल्लाह की मर्ज़ी पर सर झुकाए सब्र करें तो अगर वो वबा (महामारी) से बच जाएं तो भी उन्हें शहादत का सवाब मिलेगा.

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